*अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस (मई दिवस) 1 मई 2022*

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*अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस (मई दिवस) 1 मई 2022*
  
आधुनिक मशीनों पर अपनी श्रमशक्ति बेचने वाला मजदूर और आधुनिक मशीनों का मालिक दोनों साथ साथ पैदा हुए। मजदूर हमेशा नहीं थे और पूंजीपति भी। इनका इतिहास बहुत पुराना नहीं है। 

कबीलाई युग में सभी लोग काम करते मिल बांटकर खाते थे। कोई मालिक और कोई मजदूर नहीं था। निजी सम्पत्ति के उदय के बाद दास और दास मालिक नाम के दो वर्ग बने। दास प्रथा के युग में मालिक वर्ग श्रम करने वालों को ही खरीद लेता था। सामंती युग आया तो श्रमिक भूदासों के उत्पादों को ही लगान के तौर पर सामन्ती मालिक वर्ग हड़पने लगा। फिर पूंजीवादी युग आया इस युग में मालिक वर्ग श्रम करने वाले मजदूरों की श्रमशक्ति खरीदने लगा।
 
मजदूर जो मूल्य पैदा करता है पूंजीपति उस मूल्य का एक छोटा सा भाग मजदूर की श्रमशक्ति खरीदने में लगाता है बाकी सारा अतिरिक्त मूल्य हड़प लेता है। मजदूर की दशा दिनो-दिन बदतर होती जाती है और पूंजीपति दिनों-दिन अमीर से अमीर होता जाता है। यहीं से शुरू होता है मजदूरों और पूंजीपतियों के बीच अन्तर्विरोध। 'उत्पादन सामूहिक और मालिकाना व्यक्तिगत' यही अन्तर्विरोध का मुख्य आधार होता है। शुरुआत में मजदूर संगठित होकर हल्की तोड़-फोड़ करते हैं, फिर कुछेक कारखानों में हड़ताल होती है, फिर कई कारखानों में होते हुए हड़ताल देशव्यापी हो जाता है। पहले वे आर्थिक मांगों को लेकर लड़ते हैं, इसमें राबर्ट ओवेन जैसे समाजवादी विचारक आते हैं जो पूंजीपतियों को समझा-बुझाकर मजदूरों की दशा को बेहतर बनाना चाहते हैं। फिर मजदूर वर्ग के बाहर से मार्क्स, एंगेल्स जैसे बुद्धिजीवी मजदूर आन्दोलन में शामिल होते हैं, ये लोग मजदूरों में क्रान्तिकारी विचारों का बीजारोपण करते हैं। और बताते हैं कि राबर्ट ओवेन का मानना है कि समाजवाद पूंजीपतिवर्ग की इच्छा से आएगा यह काल्पनिक समाजवाद है जो कभी नहीं आने वाला है क्योंकि पूंजीपतिवर्ग अपनी कब्र खुद नहीं खोदेगा, और यह भी बताया कि मजदूर वर्ग बलपूर्वक पूंजीपतिवर्ग का तख्तापलट कर ही समाजवाद कायम करेगा।

मार्क्स एंगेल्स के विचारों के आधार पर मजदूर वर्ग की अपनी पार्टी बनती है, और मजदूर वर्ग पहली बार 1871 में फ्रान्स में पूंजीपतिवर्ग का तख्तापलट कर अपनी सरकार बनाता है। इससे पूरी दुनियां का पूंजीपतिवर्ग थर्रा उठता है। मजदूर वर्ग सत्ता पर काबिज होकर समाजवादी अर्थव्यवस्था की बुनियाद डालता है जिसमें सबको योग्यतानुसार काम और काम के अनुसार दाम मिलता है। मगर सिर्फ 72 दिन तक ही मजदूरों की सरकार चल पाती है। कई देशों के पूंजीपति मिलकर अपनी सेना भेजकर 'मजदूर वर्ग की पेरिस कम्यून क्रान्ति' को खून की नदी में डुबो देते हैं। इसके बाद 1917 में रूस में मजदूरों ने एक करोड़ बयालिस लाख सैनिकों वाली जारशाही हुकूमत का तख्तापलट दिया और दुनिया भर के पूंजीपतियों के तमाम हमलों, घेरेबन्दियों के बावजूद रूस में 72 साल तक सरकार चलाई। सन 1949 में चीन में मजदूरों ने 80 लाख सैनिकों वाली च्यांगकाई शेक की सरकार को परास्त कर अपनी सरकार बनायी जो आज भी बहुत शानदार तरीके से चल रही है। इसके अलावा क्यूबा, वियतनाम, वल्गारिया, लाओस, कम्बोडिया, उत्तर कोरिया आदि दर्जनों देशों में मजदूर वर्ग की कम्यूनिस्ट पार्टियों की सरकारें चल रही हैं। बताते चलें कि मजदूर वर्ग के इन संघर्षों में किसानों की भी बड़ी भूमिका रही है।

मजदूरों का यह शानदार इतिहास मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओत्से तुंग विचारधारा पर चलने के कारण बना है। इसीलिए नरेन्द्र मोदी जैसे शोषक वर्ग के मजबूत नेता भी कम्यूनिस्ट विचारधारा से भयभीत होकर कहते हैं- "...विचारधारा बहुत खतरनाक है।"
 
आज  जिन देशों में मजदूरों की दुर्दशा हो रही है, वह मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओत्से तुंग विचारधारा न अपनाने या रूस की तरह छोड़ देने या सही तरीके से अमल न कर पाने के कारण हो रही है।
 
आज की अन्तर्राष्ट्रीय परिस्थितियों को देखें तो विश्वपूंजीवाद भयानक महामंदी में फंसा हुआ है। 2008 से जारी विश्वपूंजुवाद की महामंदी अब अन्तहीन महामंदी में बदल चुकी है। इससे उबरने के लिए अमेरिकी साम्राज्यवाद विश्वयुद्ध करना चाहता है, परन्तु शक्ति संतुलन उसके पक्ष में अभी नहीं है तो वह यूक्रेन को रूस के खिलाफ लड़ा कर एक तरफ़ अपना हथियार और दवाएं बेचकर भारी सूद, रायल्टी और मुनाफा कमा रहा है तो दूसरी तरफ यूक्रेन होते हुए यूरोप जाने वाली रूस की गैस पाइपलाइन के निर्माण में व्यवधान डाल रहा है, साथ ही साथ चीन की बेल्ट एण्ड रोड इनीशियेटिव जैसी महत्वाकांक्षी परियोजना जो यूक्रेन होते हुए यूरोप जा रही है, उसमें भी टांग अड़ा रहा है। साथ ही साथ तीसरी दुनिया के देशों में कालेधन का इस्तेमाल करके जाति, धर्म, रंग, लिंग, नस्ल भाषा, क्षेत्र के नाम पर जनता को जनता से लड़ा रहा है।

हमारे देश का मजदूर जातिवादी सम्प्रदायवादी नरपिशाचों के चंगुल में फंसा है जिसके कारण भयानक बेरोजगारी का दंश झेल रहा है। नरपिशाचों ने 44 श्रम कानूनों को रद्द कर चार श्रमसंहितायें लागू कर दिया है। जिससे मजदूरों के वे सारे अधिकार लगभग खत्म होते जा रहे हैं जिन अधिकारों को वे महान कुर्बानियां देकर हासिल किये थे।
हमारे देश में भूमिहीन व गरीब किसान भुखमरी के कगार पर खड़ा है, नौजवानों के पास रोजगार नहीं है, चुनाव जीतने के लिए सीमा पर जवानों का वध कराया जा रहा है। जातिवादी और साम्प्रदायिक ताकतें राष्ट्रवाद और संस्कृति की खोल ओढ़ कर जनता को जनता से लड़ा रही हैं। जितना ही मंहगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, सूदखोरी, जमाखोरी आदि में बढ़ोत्तरी हो रही है उतना ही काला धन झोंका जा रहा है, जितना ही काला धन झोंका जा रहा है उतना ही भाड़े के दंगाई लोग गाय, गोबर, गंगा, गीता, मन्दिर, मस्जिद के नाम पर दंगे-फसाद बढ़ाते जा रहे हैं।

ऐसी ही परिस्थिति में हम मई दिवस यानी अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस पर मना रहे हैं।
राबर्ट ओवेन के काल्पनिक विचारों को मार्क्स,-ऐंगेल्स अपना कम्यूनिस्ट घोषणा पत्र लिख कर खारिज कर चुके थे। कम्यूनिस्ट घोषणापत्र के आलोक में 1871 की पेरिस कम्यून क्रान्ति हो चुकी थी। इसी विचारधारा की रोशनी में 15-20 घंटे की बजाय 8 घंटे काम की मांग को लेकर  4 मई 1886 में अमेरिका के शिकागो शहर के हे मार्केट में मजदूरों ने भारी प्रदर्शन किया। अमेरिकी पुलिस ने आन्दोलन को कुचलने के लिए मजदूरों पर बेरहमी से गोलियां चलाई जिसमें दर्जनों मजदूर शहीद हो गए। कई मजदूर नेताओं को गिरफ्तार कर कारावास और फांसी तक की सजा दी गयी। इन्हीं मजदूरों की याद में हम 1 मई को प्रतिवर्ष अन्तर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया जाता है।

इसको मनाने का इतिहास इस तरह है- इंटरनेशनल वर्किंगमेन एसोसिएशन, जिसे फर्स्ट इंटरनेशनल के नाम से जाना जाता है, जिसकी स्थापना 1864 में लंदन में सभी समाजवादी और कम्युनिस्ट संगठनों के लिए एक 'छतरी संगठन' के रूप में हुआ था। 1876 ​​में कुछ वैचारिक मतभेदों के चलते फर्स्ट इंटरनेशनल के भंग होने के बाद, सेकेण्ड इंटरनेशनल 1889 में समाजवादी और श्रमिक दलों के एक संयुक्त संगठन के रूप में उभरा। यही वह संगठन था जिसकी 1889 की पहली बैठक में 1 मई को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाने का निर्णय लिया गया। बताते चलें कि 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाने की घोषणा भी इसी बैठक में हुई।

तभी से हम 1मई को मजदूर वर्ग की शानदार शहादतों से भरे हुए इतिहास को याद करते हैं।
                                       इंकलाब जिन्दाबाद।
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*शिकागो के शहीद मज़दूर नेता*
(1)अल्बर्ट पार्सन्स, जन्म: 20 जून 1848, मृत्यु: 11 नवम्बर 1887 को फांसी, पेशा: प्रिंटिंग प्रेस का मजदूर।
(2)आगस्ट स्पाइस, जन्म: 10 दिसम्बर 1855, मृत्यु: 11 नवम्बर 1887 को फाँसी,पेशा: फर्नीचर कारीगर।
(3) एडॉल्फ़ फिशर, जन्म 1858, मृत्यु 11 नवम्बर 1887 को फाँसी, पेशा: प्रिण्टिंग प्रेस का मज़दूर।
(4) जॉर्ज एंजिल, जन्म : 15 अप्रैल 1836, मृत्यु: 11 नवम्बर 1887 को फाँसी, पेशा: खिलौने बेचने वाला।
(5) सैमुअल फील्डेन, जन्म: 25 फ़रवरी 1847, मृत्यु: 7 फ़रवरी 1922, पेशा: सामानों की ढुलाई करने वाला मजदूर।
(6) माइकेल श्राब, जन्म: 9 अगस्त 1853, मृत्यु: 29 जून 1898, पेशा: बुकबाइण्डर।
(7) लुइस लिंग्ग, जन्म: 9 सितम्बर 1864, मृत्यु: 10 नवम्बर 1887 (जेल की कोठरी में आत्महत्या) पेशा: बढ़ई।
(8) ऑस्कर नीबे, जन्म: 12 जुलाई 1850, मृत्यु: 22 अप्रैल 1916, पेशा: खमीर बेचनेवाली एक दुकान में भागीदारी।

*इंकलाब - जिन्दाबाद!   साम्राज्यवाद- मुर्दाबाद!!*

*रजनीश भारती*
*जनवादी मजदूर सभा*

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