_क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला-6_**मूल्य के श्रम सिद्धान्त का विकास : एडम स्मिथ, डेविड रिकार्डो और मार्क्स – 1*
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*_क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला-6_*
*मूल्य के श्रम सिद्धान्त का विकास : एडम स्मिथ, डेविड रिकार्डो और मार्क्स – 1*
✍ अभिनव (अंक - नवम्बर 2022)
🖥 ऑनलाइन लिंक - https://www.mazdoorbigul.net/archives/15751
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प्रिय साथियो,
मज़दूर बिगुल के जून अंक से हमने एक लेख माला शुरू की है जिसका शीर्षक है – क्रान्तिकारी मज़दूर शिक्षण माला। इसका उद्देश्य है कि देशभर में तमाम मज़दूर कार्यकर्ताओं, मज़दूर साथियों और देश-समाज को समझने व बदलने के इच्छुक लोगों को थोड़े सरल तरीक़े से ऐतिहासिक भौतिकवाद, द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद व राजनीतिक अर्थशास्त्र की बुनियादी अवधारणाओं से परिचित करवायें। शुरुआत में आपको कुछ शब्दों को समझने में दिक़्क़त हो सकती है लेकिन फिर भी यह काफ़ी सरलीकृत है इसलिए आपसे आग्रह है कि इसे ठीक से पढ़ें-समझें और अगर सम्भव हो तो अपने आसपास के लोगों से चर्चा भी करें। व्हाट्सएप, फ़ेसबुक पर तो शेयर करें ही। जो शब्द आपको शुरुआत में कठिन लगते हैं उन्हें एक तरफ़ उनके अर्थ के साथ लिख लें। इससे आपको आगे आसानी होगी।
आज इस लेख माला की पाँचवी क़िस्त शेयर कर रहे हैं। पहली क़िस्त का लिंक ये है - https://www.mazdoorbigul.net/archives/15397
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हर भौतिक चीज़ के विकास को ही नहीं बल्कि हर वैज्ञानिक सिद्धान्त के विकास को भी हमें ऐतिहासिक तौर पर समझना चाहिए। हमें कभी भूलना नहीं चाहिए कि कोई क्रान्तिकारी और वैज्ञानिक विचार कहीं आसमान से नहीं टपकता। एक ओर वह सामाजिक व्यवहार के बुनियादी रूपों और उनके अनुभवों के समाहार के ज़रिए विकसित होता है, वहीं वह अपने समय तक की बौद्धिक प्रवृत्तियों के साथ एक आलोचनात्मक रिश्ता क़ायम करके ही विकसित हो सकता है। मार्क्स ने भी अपना वैज्ञानिक और क्रान्तिकारी राजनीतिक अर्थशास्त्र किसी वैचारिक निर्वात में या शून्य में नहीं विकसित किया। एक ओर उन्होंने अपने समय की पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की ठोस गति की गहरी पड़ताल की, वहीं दूसरी ओर उन्होंने अपने समय तक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था की गतिकी पर पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्रियों द्वारा किये गये अध्ययन का भी आलोचनात्मक विवेचन किया। इस प्रक्रिया में उन्होंने विलियम पेटी, जेरेमी बेंथम, डेविड ह्यूम, फ़िज़ियोक्रैट धारा के अर्थशास्त्रियों जैसे क्वेज़्ने, टर्गाट, आदि और विशेष तौर पर अंग्रेज़ी राजनीतिक अर्थशास्त्र के शिखरों, यानी एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो के राजनीतिक अर्थशास्त्र का गहराई से अध्ययन किया, उनकी सकारात्मक खोजों को पहचाना और उनका सही दिशा में विकास किया और साथ ही उनकी कमियों और ग़लतियों की आलोचना पेश की। मार्क्स के राजनीतिक अर्थशास्त्र को सही तरीक़े से समझने के लिए इस ऐतिहासिक विकास पर एक संक्षिप्त दृष्टि डालने से हमारी मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र यानी सर्वहारा वर्ग के राजनीतिक अर्थशास्त्र की समझदारी भी कहीं ज़्यादा स्पष्ट और उन्नत होगी।
हमने पिछले अध्याय में देखा था कि किस प्रकार हर माल का मूल्य उसमें लगे प्रत्यक्ष/जीवित और अप्रत्यक्ष/मृत अमूर्त श्रम की मात्रा से निर्धारित होता है, जो स्वयं सामाजिक रूप से आवश्यक श्रमकाल द्वारा मापा जाता है। हमने समझा कि हर माल का एक उपयोग मूल्य होता है और एक विनिमय मूल्य होता है। हमने यह भी देखा कि विनिमय मूल्य और कुछ नहीं बल्कि दो मालों के मूल्य का अनुपात होता है और माल का मूल्य स्वयं और कुछ नहीं बल्कि सामाजिक रूप से आवश्यक अमूर्त श्रम होता है।
लेकिन आज पूँजीवादी अर्थशास्त्र के सारे पाठ्यक्रमों में छात्रों को बताया जाता है कि माल का मूल्य और उसकी कीमत माँग और आपूर्ति से निर्धारित होती है और पूँजीपति का मुनाफ़ा भी माल को सस्ता ख़रीदने और महँगा बेचने के ज़रिए, यानी बाज़ार क़ीमतों के ज़रिए ही आता है। लेकिन यदि क़ीमत माँग और आपूर्ति से निर्धारित होती है, तो माँग और आपूर्ति के सम्पूर्ण सन्तुलन में होने पर उनकी क़ीमत शून्य होनी चाहिए! ज़ाहिर है, माँग और आपूर्ति के कारण मालों की बाज़ार क़ीमत के तात्कालिक उतार-चढ़ाव की व्याख्या ही की जा सकती है, न कि उनके मूल्य की।
वैसे भी मालों की माँग और आपूर्ति स्वयं किसी चीज़ की व्याख्या नहीं करते, बल्कि स्वयं उनकी व्याख्या करनी होती है। मिसाल के तौर पर, किसी माल की प्रभावी माँग किसी ख़ास क़ीमत पर प्रभावी माँग होती है; यदि क़ीमत घटती है, तो प्रभावी माँग बढ़ती है, जबकि यदि क़ीमत बढ़ती है तो प्रभावी माँग घटती है। नतीजतन, माँग में बढ़ोत्तरी या कमी क़ीमत के उतार-चढ़ाव की कोई व्याख्या पेश नहीं कर सकती है क्योंकि हर प्रभावी माँग किसी न किसी क़ीमत पर एक प्रभावी माँग होती है। इसी प्रकार आपूर्ति का स्तर अपने आप में किसी भी माल के उत्पादन के स्तर से निर्धारित होता है, जो कि स्वयं मुनाफ़े की दर से निर्धारित होता है। वह भी अपने आप में क़ीमतों को निर्धारित नहीं कर सकती है। जब तक माल के मूल्य के निर्धारण के लिए उसके उत्पादन में लगे श्रम पर विचार न किया जाये, तब तक ये सारी समस्याएँ असमाधानित ही रहती हैं।
लेकिन आप यदि यह बात आज किसी पूँजीपति या पूँजीवादी विचारधारा की गिरफ़्त में पड़े किसी मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी से कहें कि हर माल का मूल्य उसमें लगे मानवीय श्रम से तय होता है, तो वह आपको ‘कम्युनिस्ट’, ‘मार्क्सवादी’ आदि कहेगा और आपकी इस बात को बिना किसी तर्क के ख़ारिज करने की कोशिश करेगा कि माल का मूल्य वास्तव में उसमें लगे श्रम से ही तय होता है। वह माल की क़ीमत और पूँजीपति के मुनाफ़े को पूँजीपति की चालाकी, व्यापार-बुद्धि या कुशलता का नतीजा बतायेगा जिसके ज़रिए कोई पूँजीपति अन्य पूँजीपतियों को अपनी कुटिलता और घाघपन से ठगकर या चकमा देकर मुनाफ़ा कमाता है! लेकिन अगर ऐसा है तो समूचे सामाजिक स्तर पर कुल मुनाफ़े (aggregate profit) जैसी कोई चीज़ नहीं रह जायेगी क्योंकि किसी भी पूँजीपति का लाभ किसी दूसरे पूँजीपति की हानि से पैदा हो रहा है। यह न समझने वाले समाज की कुल समृद्धि में नियमित तौर पर होने वाली बढ़ोत्तरी की व्याख्या भी नहीं कर सकते हैं क्योंकि अगर एक पूँजीपति का लाभ दूसरे पूँजीपति की हानि है तो फिर कुल सामाजिक स्तर पर कुल अधिशेष में कोई बढ़ोत्तरी नहीं होनी चाहिए।
इसी प्रकार, पूँजीवादी विचारधारा की गिरफ़्त में पड़ा कोई व्यक्ति मज़दूर की मज़दूरी के बारे में कहेगा कि वह उसकी कुशलता या अकुशलता पर निर्भर करती है और उसने जितनी मेहनत दी, उसका भुगतान उसे मिल गया, उसका कोई शोषण नहीं हुआ! उसके पास शिकायत करने की कोई वजह नहीं होनी चाहिए! पूँजीपति वर्ग, उसकी व्यवस्था और उसकी शिक्षा व्यवस्था व मीडिया आम तौर पर जनता को पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े और मज़दूर वर्ग की मज़दूरी के बारे में इसी प्रकार की मूर्खतापूर्ण अवैज्ञानिक बातें बताता है और अगर आप समूचे उत्पादन के मूल्य के तौर पर सामाजिक श्रम की बात करते हैं या समाज की समृद्धि के स्रोत के तौर पर मानव श्रम की बात करते हैं तो आपकी बात को ‘मार्क्सवादी’ या ‘कम्युनिस्ट’ बात कहकर बिना किसी तर्क के ख़ारिज करने का प्रयास किया जाता है।
लेकिन मज़ेदार बात यह है कि सभी मालों का मूल्य उसमें लगे कुल मानव श्रम से निर्धारित होता है, यह कहने वाले मार्क्स पहले व्यक्ति नहीं थे। यह बात मार्क्स से पहले (कृषि उत्पादन के मामले में) फ़िज़ियोक्रैट धारा के अर्थशास्त्रियों जैसे क्वेज़्ने और टर्गोट ने और फिर आम तौर पर समस्त उत्पादन के मामले में एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो ने कही थी। स्मिथ और रिकार्डो ने इस बात को तर्कश: और तथ्यत: सिद्ध भी किया था, हालाँकि वे यह नहीं बता पाये थे कि पूँजीपति वर्ग का मुनाफ़ा कैसे और कहाँ से पैदा होता है। वे यह जानते थे कि हर माल के मूल्य के दो हिस्से हैं : पहला, अतीत के श्रम से पैदा हिस्सा, यानी अप्रत्यक्ष श्रम से पैदा हिस्सा जो कि कच्चे माल और मशीन आदि में लगे श्रम के रूप में माल के श्रम-मूल्य में जुड़ता है; और दूसरा, प्रत्यक्ष श्रम का हिस्सा जो मज़दूर के श्रम से पैदा होता है। वे यह भी जानते थे कि पूँजीवादी माल उत्पादन की शुरुआत के बाद प्रत्यक्ष श्रम से पैदा होने वाला नया मूल्य मज़दूरी और मुनाफ़े (और साथ ही लगान, कर, और ब्याज़) में बँटता है। अत: उन्हें यह स्पष्ट था कि मज़दूर के श्रम द्वारा पैदा होने वाला सारा नया मूल्य उसे नहीं मिलता है। लेकिन वे इसके विश्लेषण में नहीं जा पाते और मुनाफ़े के मूल स्रोत की तलाश नहीं कर पाते। वे बस इस तथ्य पर रुक जाते हैं कि प्रत्यक्ष या जीवित श्रम द्वारा सृजित नये मूल्य का मुनाफ़े और मज़दूरी में बँटवारा होता है। ऐसे में, निजी सम्पत्ति यानी उत्पादन के साधनों का मालिक होने के कारण एक प्रकार से पूँजीपति वर्ग नये मूल्य के एक हिस्से को मुनाफ़े के तौर पर हड़प लेने का उचित अधिकारी प्रतीत होने लगता है। इसीलिए मार्क्स ने एक बार क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्र की आलोचना करते हुए कहा था कि उसका मक़सद निजी सम्पत्ति की व्याख्या करना, यानी उसके मूल को स्पष्ट करना होना चाहिए था, लेकिन वह अपने विश्लेषण की शुरुआत ही निजी सम्पत्ति के तथ्य को स्वीकार करके करता है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि स्मिथ और रिकार्डो के राजनीतिक अर्थशास्त्र का कोई वैज्ञानिक चरित्र और सकारात्मक भूमिका नहीं थी।
विशेष तौर पर, एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो के क्लासिकीय राजनीतिक अर्थशास्त्र की मार्क्स ने प्रशंसा की थी और कहा था कि पूँजीवाद और पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के इस प्रगतिशील दौर में पेश आर्थिक सिद्धान्तों के दो पहलू हैं : वैज्ञानिक या गुह्य (esoteric) और विचारधारात्मक या आमफ़हम (exoteric)। हमें इसके वैज्ञानिक पहलुओं को अपनाना चाहिए और उन्हें विकसित करना चाहिए और साथ ही उसके अवैज्ञानिक पहलुओं को त्यागना चाहिए। इसी को दर्शन की भाषा में हम ‘निषेध का निषेध’ के ज़रिए विकास कहते हैं जिसमें किसी भी चीज़ के सही और वैज्ञानिक पहलू को अपनाकर उसे विकसित किया जाता है जबकि उसके ग़लत या अवैज्ञानिक पहलू को त्याग दिया जाता है। जैसा कि कबीर ने कहा था, ‘सार-सार का गहि रहे, थोथा देई उड़ाय’। मार्क्स ने एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो के मूल्य के श्रम सिद्धान्त की वैज्ञानिक आलोचना पेश की, उसके सकारात्मक पहलुओं को विकसित किया और इसी प्रक्रिया में बेशी मूल्य और उद्यमी के मुनाफ़े, भूस्वामी के लगान, सूदख़ोर के ब्याज़ और व्यापारी के वाणिज्यिक मुनाफ़े के विभिन्न रूपों में बेशी मूल्य के वितरण को स्पष्ट किया।
लेकिन एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो ने मूल्य के श्रम सिद्धान्त का किस प्रकार विकास किया, उनके सिद्धान्त के मूल तत्व क्या थे, और उनकी कमियाँ क्या थीं, इन्हें समझने से हमारे लिए यह समझना ज़्यादा आसान होगा कि मार्क्स ने उनकी क्या आलोचना की और किस प्रकार उन्होंने मूल्य के मार्क्सवादी श्रम सिद्धान्त को विकसित करते हुए बेशी मूल्य का सिद्धान्त दिया और पूँजीपति वर्ग के मुनाफ़े के घृणित-क्षुद्र रहस्य को उजागर किया।
पहले हम एडम स्मिथ के मूल्य के श्रम सिद्धान्त से शुरुआत करते हैं।
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